कुसङ्ग से हानि एवं सुसङ्ग से लाभ

प्रियादासजी नाभाजी के हार्दिक भाव को व्यक्त करते हुए कहते हैं कि- अहो ! यदि मुझे बार-बार जन्म लेकर संसार में आना पड़े तो इसकी मुझे कुछ भी चिंता नहीं हैं क्योंकि इसमें बड़ा भारी यह लाभ होगा कि सन्तों के चरण कमलों कि रज सिर पर धारण करने का सुबह अवसर मिलेगा । प्राचीनबर्हि आदि भक्तों की कथाएँ पुराण-इतिहासों में वर्णित हैं । परन्तु महर्षि वाल्मीकि की कथा को कभी चित्त से दूर नहीं करना चाहिये । महर्षि वाल्मीकि पहले भीलों का साथ पाकर भीलों का सा आचरण करने वाले हो गये फिर सन्तों का संग पाकर ऋषि हो गये । उन्हें श्रीरघुनाथजी के दर्शन हुए । उन्होंने अपनी वाल्मीकि रामायण में श्रीरामजी के चरित्रों का विस्तार पूर्वक ऐसा उत्तम वर्णन किया है, जिन्हे गाते और सुनते हुए संसार तृप्त नहीं होता है । श्रोताओं और वक्ताओं के हृदय उत्त्कट प्रेमानुरागमय भावों से भर जाते हैं फिर आनन्दवश नेत्रों से आँसुओ की धारा बहती रहती है । बँगला-भाषा के कृत्तिवास रामायण के अनुसार ये अंगिरागोत्र में उत्पन्न एक ब्राह्मण थे । नाम था रत्नाकर । बालपने से ही किरातों के कुसंग में पड़कर ये किरात ही हो गये थे । ब्राह्मणत्व नष्ट